वो लोग जो कभी बाहर न घर से झाँकते थे
ये शब उन्हें भी सर-ए-रहगुज़ार ले आई
Gulzar
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मोहब्बतें न रहीं उस के दिल में मेरे लिए
कहाँ तलाश करूँ अब उफ़ुक़ कहानी का
थी पाँव में कोई ज़ंजीर बच गए वर्ना
रही न यारो आख़िर सकत हवाओं में
आख़िरी बस
बैन करती हुई सम्तों से न डरना 'बानी'
अजीब तजरबा था भीड़ से गुज़रने का
न क़ाएल होते हैं न ज़ाइल
उदास शाम की यादों भरी सुलगती हवा
वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'
दिलों में ख़ाक सी उड़ती है क्या न जाने क्या