वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर था
कि चुप सी लग गई दोनों को बात करते हुए
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मिरे बनाए हुए बुत में रूह फूँक दे अब
बगूले उस के सर पर चीख़ते थे
आज तो रोने को जी हो जैसे
वो बात बात पे जी भर के बोलने वाला
बैन करती हुई सम्तों से न डरना 'बानी'
दिलों में ख़ाक सी उड़ती है क्या न जाने क्या
वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'
बहुत कुछ मुंतज़िर इक बात का था
कोई भूली हुई शय ताक़-ए-हर-मंज़र पे रक्खी थी
इधर की आवाज़ इस तरफ़ है
सद-सौग़ात सकूँ फ़िरदौस सितंबर आ
मोड़ था कैसा तुझे था खोने वाला मैं