इधर की आवाज़ इस तरफ़ है
उजाड़ सी धूप
आधी साअत
कि ना-मुकम्मल अलामतें
दाग़ दाग़ आँखें
ये टीला टीला
उतरती भेड़ें
कहाँ है
जो उन के साथ होता था
इक फ़रिश्ता
कटी फटी ज़र्द
शाम से
कौन बढ़ के पूछे
कि एक इक बर्ग
आगही का
हवा के पीले
लरज़ते हाथों से गिर रहा है
तमाम मौसम बिखर रहा है
कि धीमे धीमे से आती शब का
ये आबी मंज़र
ख़ुनुक सा शीशा
कि वादी वादी के दरमियाँ है
अगर उधर की सदा है कोई
तो उस तरफ़ है
इधर की आवाज़
इस तरफ़ है
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