शाम Poetry (page 2)

बे-सबात सुब्ह शाम और मिरा वजूद

ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश

ये मेज़ ये किताब ये दीवार और मैं

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

मुझ को ये वक़्त वक़्त को मैं खो के ख़ुश हुआ

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

मैं जहाँ था वहीं रह गया माज़रत

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

कुछ ख़ाक से है काम कुछ इस ख़ाक-दाँ से है

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

जाने हम ये किन गलियों में ख़ाक उड़ा कर आ जाते हैं

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें

ज़ुहूर नज़र

तिलस्माती फ़ज़ा तख़्त-ए-सुलैमाँ पर लिए जाना

ज़ुबैर शिफ़ाई

चारों तरफ़ हैं ख़ार-ओ-ख़स दश्त में घर है बाग़ सा

ज़ुबैर शिफ़ाई

तुम अपने चाँद तारे कहकशाँ चाहे जिसे देना

ज़ुबैर रिज़वी

मा-बा'द जदीद

ज़ुबैर रिज़वी

मुझे तुम शोहरतों के दरमियाँ गुमनाम लिख देना

ज़ुबैर रिज़वी

हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे

ज़ुबैर रिज़वी

हमारी गर्दिश-ए-पा रास्तों के काम आई

ज़ुबैर रिज़वी

ग़ुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ

ज़ुबैर रिज़वी

भूली-बिसरी हुई यादों में कसक है कितनी

ज़ुबैर रिज़वी

अपनी तश्हीर करे या मुझे रुस्वा देखे

ज़िया शबनमी

मेरे कमरे में इक ऐसी खिड़की है

ज़िया मज़कूर

सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

आईने के आख़िरी इज़हार में

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

आरिज़ से तिरे सुब्ह की तोहमत न उठेगी

ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब

ज़िंदगी से थकी थकी हो क्या

ज़िया ज़मीर

सफ़र मुझ पर अजब बरपा रही है

ज़िया ज़मीर

रेज़ा रेज़ा तिरे चेहरे पे बिखरती हुई शाम

ज़िया ज़मीर

वक़्त कातिब है

ज़िया जालंधरी

टाइपिस्ट

ज़िया जालंधरी

तसलसुल

ज़िया जालंधरी

कसक

ज़िया जालंधरी

हम

ज़िया जालंधरी

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