लौ Poetry (page 11)

सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर

ग़ालिब

शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है

ग़ालिब

रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमा

ग़ालिब

रहम कर ज़ालिम कि क्या बूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है

ग़ालिब

कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है

ग़ालिब

कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए

ग़ालिब

जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी

ग़ालिब

हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी

ग़ालिब

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है

ग़ालिब

बीम-ए-रक़ीब से नहीं करते विदा-ए-होश

ग़ालिब

बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे

ग़ालिब

शाम-ए-अयादत

फ़िराक़ गोरखपुरी

परछाइयाँ

फ़िराक़ गोरखपुरी

हिण्डोला

फ़िराक़ गोरखपुरी

ज़िंदगी दर्द की कहानी है

फ़िराक़ गोरखपुरी

ग़म तिरा जल्वा-गह-ए-कौन-ओ-मकाँ है कि जो था

फ़िराक़ गोरखपुरी

अपने ग़म का मुझे कहाँ ग़म है

फ़िराक़ गोरखपुरी

कली कली का बदन फोड़ कर जो निकला है

फ़ज़्ल ताबिश

मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कुहन में ऐसा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

हाथ फैलाओ तो सूरज भी सियाही देगा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

आँखों के ख़्वाब दिल की जवानी भी ले गया

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

मुनव्वर जिस्म-ओ-जाँ होने लगे हैं

फ़सीह अकमल

कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम-रा

फर्रुख यार

यादों का अजीब सिलसिला है

फ़ारिग़ बुख़ारी

शौक़ का सिलसिला बे-कराँ है

फ़रीद जावेद

जला के दामन-ए-हस्ती का तार तार उठा

फ़रीद इशरती

मक़ाम-ए-होश से गुज़रा मकाँ से ला-मकाँ पहुँचा

फ़ना बुलंदशहरी

अँधेरे लाख छा जाएँ उजाला कम नहीं होता

फ़ना बुलंदशहरी

ऐ हम-सफ़रो क्यूँ न यहीं शहर बसा लें

फख्र ज़मान

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