अकेला Poetry (page 21)

तबाह हो के भी इक अपनी आन बाक़ी है

बाक़र मेहदी

इस दर्जा हुआ ख़ुश कि डरा दिल से बहुत मैं

बाक़र मेहदी

गूँजता शहरों में तन्हाई का सन्नाटा तो है

बाक़र मेहदी

बरसों पढ़ कर सरकश रह कर ज़ख़्मी हो कर समझा मैं

बाक़र मेहदी

क्या पूछते हो मैं कैसा हूँ

बक़ा बलूच

चलूँगा कब तलक तन्हा सफ़र में

बलवान सिंह आज़र

सर्द, तारीक रात

बलराज कोमल

एक पुर-असरार सदा

बलराज कोमल

दमक उठी है फ़ज़ा माहताब-ए-ख़्वाब के साथ

बद्र-ए-आलम ख़लिश

बुरा हो कर भी वो अच्छा बहुत है

बद्र वास्ती

ये मत कहो कि भीड़ में तन्हा खड़ा हूँ मैं

अज़्म शाकरी

कितने मौसम सरगर्दां थे मुझ से हाथ मिलाने में

अज़्म बहज़ाद

तसमा-ए-पा

अज़ीज़ तमन्नाई

रफ़्तगाँ

अज़ीज़ क़ैसी

कावाक

अज़ीज़ क़ैसी

किसी से ज़ेहन जो मिलता तो गुफ़्तुगू करते

अज़ीज़ नबील

अगरचे ज़ेहन के कश्कोल से छलक रहे थे

अज़ीज़ नबील

दिल समझता था कि ख़ल्वत में वो तन्हा होंगे

अज़ीज़ लखनवी

दर्द जाता नज़र नहीं आता

अज़ीज़ हैदराबादी

मिरी दुनिया अकेली हो रही है

अज़हर नैयर

बस रंज की है दास्ताँ उन्वान हज़ारों

अज़हर हाश्मी

कमी है कौन सी घर में दिखाने लग गए हैं

अज़हर फ़राग़

धूप में साया बने तन्हा खड़े होते हैं

अज़हर फ़राग़

वो शोख़ दिल-ओ-जाँ की तमन्ना तो न निकला

अज़ीम कुरेशी

सुरूर-ए-इश्क़ की मस्ती कहाँ है सब के लिए

अज़ीम कुरेशी

बीच दिलों में उतरा तो है

अज़ीम कुरेशी

यादों की महफ़िल में खो कर

आज़ाद गुलाटी

वो जो किसी का रूप धार कर आया था

आज़ाद गुलाटी

उम्र भर चलते रहे हम वक़्त की तलवार पर

आज़ाद गुलाटी

रौशनी फैली तो सब का रंग काला हो गया

आज़ाद गुलाटी

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