ज़ीस्त Poetry (page 9)

चाहे हमारा ज़िक्र किसी भी ज़बाँ में हो

सईद नक़वी

एक इक लम्हा मुझे ज़ीस्त से बे-ज़ारी है

सादिक़ इंदौरी

वो चीर के आकाश ज़मीं पर उतर आया

सादिक़

रास्ते फैले हुए जितने भी थे पत्थर के थे

सदफ़ जाफ़री

ठहरे भी नहीं हैं कहीं चलते भी नहीं हैं

सचिन शालिनी

ये सोच के राख हो गया हूँ

साबिर ज़फ़र

वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी

साबिर ज़फ़र

मैं भी हूँ इक मकान की हद में

साबिर ज़फ़र

जीने का दरस सब से जुदा चाहिए मुझे

साबिर ज़फ़र

तेरी याद मेरी भूल

साबिर दत्त

मैं दरिया हूँ मगर दोनों तरफ़ साहिल है तन्हाई

सबीला इनाम सिद्दीक़ी

किस को बताते किस से छुपाते सुराग़-ए-दिल

सबीला इनाम सिद्दीक़ी

अगर अल्फ़ाज़ से ग़म का इज़ाला हो गया होता

सबीला इनाम सिद्दीक़ी

आँखों में वो आएँ तो हँसाते हैं मुझे ख़्वाब

सबीला इनाम सिद्दीक़ी

क्या ज़िक्र कि इस ज़ीस्त में कुछ खोया कि पाया

सबा नुसरत

क्यूँ ढूँढती रहती हूँ उसे सारे जहाँ में

सबा नुसरत

ज़िंदगानी हँस के तय अपना सफ़र कर जाएगी

सबा इकराम

अश्क-बारी नहीं फ़ुर्क़त में शरर-बारी है

सबा अकबराबादी

तुझ पे हर हाल में मरना चाहूँ

रूही कंजाही

तो मिल भी जाए तो फिर भी तुझे तलाश करूँ

रूही कंजाही

पुर-हौल ख़राबों से शनासाई मिरी है

रूही कंजाही

अब तो यूँ लब पे मिरे हर्फ़-ए-सदाक़त आए

रूही कंजाही

आब-ए-रवाँ हूँ रास्ता क्यूँ न ढूँढ लूँ

रूही कंजाही

सदमे गुज़रे ईज़ा गुज़री

रिन्द लखनवी

गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें

रिन्द लखनवी

दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता

रिन्द लखनवी

कहाँ पे लाई है मेरी ख़ुदी कहाँ से मुझे

रिफ़अतुल क़ासमी

जलता रहा हूँ ज़ीस्त के दोज़ख़ में उम्र भर

रिफ़अत सुलतान

ना-आश्ना-ए-दर्द नहीं बेवफ़ा नहीं

रिफ़अत सुलतान

मसर्रतों का खिला है हर एक सम्त चमन

रिफ़अत सुलतान

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