आंखें Poetry (page 47)

कुछ भी नहीं जो याद-ए-बुतान-ए-हसीं नहीं

अफ़सर इलाहाबादी

फ़लक उन से जो बढ़ कर बद-चलन होता तो क्या होता

अफ़सर इलाहाबादी

समय

अफ़रोज़ आलम

मुझ को इक अर्सा-ए-दिल-गीर में रक्खा गया था

अफ़ीफ़ सिराज

बरसों के जैसे लम्हों में ये रात गुज़रती जाएगी

अफ़ीफ़ सिराज

ज़रा देर बैठे थे तन्हाई में

आदिल मंसूरी

खिड़की ने आँखें खोली

आदिल मंसूरी

वक़्त की पीठ पर

आदिल मंसूरी

सियाह चाँद के टुकड़ों को मैं चबा जाऊँ

आदिल मंसूरी

शुऊर नीली रुतूबतों में उलझ गया है

आदिल मंसूरी

नज़्म

आदिल मंसूरी

नज़्म

आदिल मंसूरी

एक नज़्म

आदिल मंसूरी

आमीन

आदिल मंसूरी

सड़कों पर सूरज उतरा

आदिल मंसूरी

बदन पर नई फ़स्ल आने लगी

आदिल मंसूरी

मेरे रस्ते में भी अश्जार उगाया कीजे

अदीम हाशमी

कोई पत्थर कोई गुहर क्यूँ है

अदीम हाशमी

तौफ़ीक़ से कब कोई सरोकार चले है

अदा जाफ़री

नई सुब्ह चाहते हैं नई शाम चाहते हैं

अबुल मुजाहिद ज़ाहिद

तमाम हिज्र उसी का विसाल है उस का

अबुल हसनात हक़्क़ी

आगे वो जा भी चुके लुत्फ़-ए-नज़ारा भी गया

अबु मोहम्मद वासिल

मिट्टी थी किस जगह की

अबरार अहमद

हवा जब तेज़ चलती है

अबरार अहमद

बारिश

अबरार अहमद

जब से दरिया में है तुग़्यानी बहुत

आबिद वदूद

अगले पड़ाव पर यूँही ख़ेमा लगाओगे

आबिद मुनावरी

सब मुझे ढूँडने निकले हैं बुझा कर आँखें

आबिद मलिक

आख़िरी बार ज़माने को दिखाया गया हूँ

आबिद मलिक

अब इख़्तियार में मौजें न ये रवानी है

अभिषेक शुक्ला

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