अखबार Poetry (page 4)

इस बहर-ए-बे-सदा में कुछ और नीचे जाएँ

बशीर सैफ़ी

उदास रात है कोई तो ख़्वाब दे जाओ

बशीर बद्र

गोडो

बाक़र मेहदी

तिरा लहज़ा वही तलवार जैसा था

बकुल देव

क़ातिल हुआ ख़मोश तो तलवार बोल उठी

बख़्श लाइलपूरी

हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा

ज़फ़र

तमाम शख़्सियत उस की हसीं नज़र आई

अज़हर इनायती

सुब्ह आती है तो अख़बार से लग जाते हैं

अज़ीज़ परीहारी

ख़ुश बहुत आते हैं मुझ को रास्ते दुश्वार से

औरंगज़ेब

ये तिरी ज़ुल्फ़ का कुंडल तो मुझे मार चला

अतहर शाह ख़ान जैदी

जागते ही नज़र अख़बार में खो जाती है

अता आबिदी

फ़न अस्ल में पिन्हाँ है दिल-ए-ज़ार के अंदर

असरार अकबराबादी

अपना घर बाज़ार में क्यूँ रख दिया

अासिफ़ा निशात

दुनिया को हादसों में गिरफ़्तार देखना

अशफ़ाक़ रशीद मंसूरी

शहर-बदर

असग़र नदीम सय्यद

मैं गिरता हूँ

असग़र नदीम सय्यद

फैली है धूप जज़्बा-ए-इस्फ़ार देख कर

अक़ील जामिद

मख़मली ख़्वाब का आँखों में न मंज़र फैला

अनवर मीनाई

रोज़ अख़बार में छप जाने से मिलता क्या है

अनजुम अब्बासी

एक ख़्वाहिश

अमीक़ हनफ़ी

जो भी मिल जाता है घर-बार को दे देता हूँ

अख़्तर नज़्मी

खींचो न कमानों को न तलवार निकालो

अकबर इलाहाबादी

शहर

ऐन रशीद

जलती बुझती सी रहगुज़र जैसे

अहमद ज़िया

इल्म भी आज़ार लगता है मुझे

अहमद सोज़

धुँद के रिश्ते है

अहमद हमेश

मैं क्या हूँ मुझे तुम ने जो आज़ार पे खींचा

अहमद फ़क़ीह

यूँ इलाज-ए-दिल बीमार किया जाएगा

अफ़ज़ल इलाहाबादी

दे रहे हैं जिस को तोपों की सलामी आदमी

आफ़ताब हुसैन

आप ने आज ये महफ़िल जो सजाई हुई है

अफ़ीफ़ सिराज

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