दिल Poetry (page 5)
अफ़सोस किसी से मिट न सकी इंसान के दिल की तिश्ना-लबी
ले के दिल कहते हो उल्फ़त क्या है
बहार बन के जब से वो मिरे जहाँ पे छाए हैं
अहिंसा की पहली सुनहरी किरन
किस तवक़्क़ो' पे शरीक-ए-ग़म-ए-याराँ होंगे
सर्द आहों ने मिरे ज़ख़्मों को आबाद किया
नज़र से छुप गए दिल से जुदा तो होना था
किस के नग़्मे गूँजते हैं ज़िंदगी के साज़ में
जाम ख़ाली हैं मय-ए-नाब कहाँ से लाऊँ
हर वो हंगामा ना-गहाँ गुज़रा
न शिकवा लब तक आएगा न नाला दिल से निकलेगा
एक है फिर भी है ख़ुदा सब का
दाग़-ए-दिल दाग़-ए-तमन्ना मिल गया
सिलसिला-दर-सिलसिला जुज़्व-ए-अदा होना ही था
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
शुऊर-ओ-फ़िक्र से आगे निकल भी सकता है
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
मिरी ख़ाक में विला का न कोई शरार होता
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
कूज़ा-गर देख अगर चाक पे आना है मुझे
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
ख़ामोश ज़मज़मे हैं मिरा हर्फ़-ए-ज़ार चुप
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
अँधेरों से उलझने की कोई तदबीर करना है
ज़ुल्फ़िकार नक़वी
वो सानेहा हुआ था कि बस दिल दहल गए!
ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश
पेड़ों की घनी छाँव और चैत की हिद्दत थी
ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश
नदी किनारे बैठे रहना अच्छा है
ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश
कुछ गुनह नहीं इस में ए'तिराफ़ ही कर लो
ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश
कातता हूँ रात-भर अपने लहू की धार को
ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश
सुनते हैं जो हम दश्त में पानी की कहानी
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
शुक्र किया है इन पेड़ों ने सब्र की आदत डाली है
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
शब में दिन का बोझ उठाया दिन में शब-बेदारी की
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
सहराओं के दोस्त थे हम ख़ुद-आराई से ख़त्म हुए
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
सफ़र पे जैसे कोई घर से हो के जाता है
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
पेड़ों से बात-चीत ज़रा कर रहे हैं हम
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
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