घर Poetry (page 3)

चारों तरफ़ हैं ख़ार-ओ-ख़स दश्त में घर है बाग़ सा

ज़ुबैर शिफ़ाई

जला है दिल या कोई घर ये देखना लोगो

ज़ुबैर रिज़वी

नया जन्म

ज़ुबैर रिज़वी

मुसालहत

ज़ुबैर रिज़वी

मनकूहा

ज़ुबैर रिज़वी

था हर्फ़-ए-शौक़ सैद हुआ कौन ले गया

ज़ुबैर रिज़वी

शफ़क़-सिफ़ात जो पैकर दिखाई देता है

ज़ुबैर रिज़वी

पत्थर की क़बा पहने मिला जो भी मिला है

ज़ुबैर रिज़वी

कुछ दिनों इस शहर में हम लोग आवारा फिरें

ज़ुबैर रिज़वी

कोई चेहरा न सदा कोई न पैकर होगा

ज़ुबैर रिज़वी

कई कोठे चढ़ेगा वो कई ज़ीनों से उतरेगा

ज़ुबैर रिज़वी

कहाँ मैं जाऊँ ग़म-ए-इश्क़-ए-राएगाँ ले कर

ज़ुबैर रिज़वी

हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे

ज़ुबैर रिज़वी

हर क़दम सैल-ए-हवादिस से बचाया है मुझे

ज़ुबैर रिज़वी

है धूप कभी साया शोला है कभी शबनम

ज़ुबैर रिज़वी

छोड़ कर घर की फ़ज़ा रानाइयाँ पछता गईं

ज़ुबैर रिज़वी

बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो

ज़ुबैर रिज़वी

अपने घर के दर-ओ-दीवार को ऊँचा न करो

ज़ुबैर रिज़वी

मैं उस के जाल में आऊँगा देखना 'क़ैसर'

ज़ुबैर क़ैसर

झुलसती धूप में मुझ को जला के मारेगा

ज़ुबैर क़ैसर

इतनी सर्दी है कि मैं बाँहों की हरारत माँगूँ

ज़ुबैर फ़ारूक़

वाक़िआ कोई तो हो जाता सँभलने के लिए

ज़ुबैर फ़ारूक़

मेरा सारा बदन राख हो भी चुका मैं ने दिल को बचाया है तेरे लिए

ज़ुबैर फ़ारूक़

एक ही घर के रहने वाले एक ही आँगन एक ही द्वार

ज़ुबैर अमरोहवी

ज़ेहन परेशाँ हो जाता है और भी कुछ तन्हाई में

ज़ुबैर अमरोहवी

हर एक लम्हा तिरी याद में बसर करना

ज़ुबैर अमरोहवी

ऊँचे नीचे घर थे बस्ती में बहुत

ज़ुबैर अली ताबिश

क़ुर्बतों के ये सिलसिले भी हैं

ज़िया शबनमी

मेरे कमरे में इक ऐसी खिड़की है

ज़िया मज़कूर

इसी नदामत से उस के कंधे झुके हुए हैं

ज़िया मज़कूर

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