एक ही घर के रहने वाले एक ही आँगन एक ही द्वार
जाने क्यूँ बढ़ती जाती है नफ़रत भाई भाई में
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ग़म तो ग़म ही रहेंगे 'ज़ुबैर'
हर एक लम्हा तिरी याद में बसर करना
ज़ेहन परेशाँ हो जाता है और भी कुछ तन्हाई में
कितने चेहरों के रंग ज़र्द पड़े
फिर घड़ी आ गई अज़िय्यत की
हम जो गिर कर सँभल जाएँगे