गरीबां Poetry (page 10)

हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

दौर-ए-फ़लक के शिकवे गिले रोज़गार के

गोपाल मित्तल

हैं और कई रेत के तूफ़ाँ मिरे आगे

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

उड़ाऊँ न क्यूँ तार-तार-ए-गरेबाँ

ग़ुलाम मौला क़लक़

न पहुँचे हाथ जिस का ज़ोफ़ से ता-ज़ीस्त दामन तक

ग़ुलाम मौला क़लक़

मातम-ए-दीद है दीदार का ख़्वाहाँ होना

ग़ुलाम मौला क़लक़

न होते शाद आईन-ए-गुलिस्ताँ देखने वाले

ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी

अब तो ख़ुद से भी कुछ ऐसा है बशर का रिश्ता

ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी

ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में

ग़ालिब

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'

ग़ालिब

वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा

ग़ालिब

सुर्मा-ए-मुफ़्त-ए-नज़र हूँ मिरी क़ीमत ये है

ग़ालिब

सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर

ग़ालिब

शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला

ग़ालिब

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं

ग़ालिब

क़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को

ग़ालिब

न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा

ग़ालिब

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए

ग़ालिब

लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर

ग़ालिब

जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे

ग़ालिब

हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बअ'द

ग़ालिब

हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़-ए-यक-अफ़्ग़ँ है

ग़ालिब

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना

ग़ालिब

आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं

ग़ालिब

तसव्वुर में जमाल-ए-रू-ए-ताबाँ ले के चलता हूँ

फ़ितरत अंसारी

मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था

फ़िराक़ गोरखपुरी

जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है

फ़िराक़ गोरखपुरी

इश्क़ की मायूसियों में सोज़-ए-पिन्हाँ कुछ नहीं

फ़िराक़ गोरखपुरी

हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए

फ़िराक़ गोरखपुरी

कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम-रा

फर्रुख यार

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