अमकां Poetry (page 3)
वो पल ये घड़ी
साजिदा ज़ैदी
मी-यौमिल-हिसाब
साजिदा ज़ैदी
कोई इम्काँ तो न था उस का मगर चाहता था
साइमा असमा
नूर-ए-ईमाँ सुर्मा-ए-चश्म-ए-दिल-ओ-जाँ कीजिए
साहिर देहल्वी
दोहराऊँ क्या फ़साना-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल को
सहबा अख़्तर
वही ख़राबा-ए-इम्काँ वही सिफ़ाल-ए-क़दीम
सईद अहमद
जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है
सईद अहमद
हैरत-ए-पैहम हुए ख़्वाब से मेहमाँ तिरे
सईद अहमद
जब भी तिरी क़ुर्बत के कुछ इम्काँ नज़र आए
सादिक़ नसीम
जब भी तिरी क़ुर्बत के कुछ इम्काँ नज़र आए
सादिक़ नसीम
सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
साबिर
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
साबिर
वो आलम तिश्नगी का है सफ़र आसाँ नहीं लगता
सबीला इनाम सिद्दीक़ी
इस रंग में अपने दिल-ए-नादाँ से गिला है
सबा अकबराबादी
बसा-औक़ात आ जाते हैं दामन से गरेबाँ में
साइल देहलवी
दीद-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ क्यूँ न करें सैर तो है
रिन्द लखनवी
बजा है हम ज़रूरत से ज़ियादा चाहते हैं
रियाज़ मजीद
वो बर्क़-ए-नाज़ गुरेज़ाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
रविश सिद्दीक़ी
मौसम के मुताबिक़ कोई सामाँ भी नहीं है
राशिद जमाल फ़ारूक़ी
दस्त-ए-इम्काँ में कोई फूल खिलाया जाए
राशिद अनवर राशिद
कुछ साए से हर लहज़ा किसी सम्त रवाँ हैं
रशीद क़ैसरानी
इस उजड़े शहर के आसार तक नहीं पहुँचे
रऊफ़ अमीर
मसअला ये भी ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ आसाँ हो गया
राम कृष्ण मुज़्तर
क्या ग़ज़ब है कि मुलाक़ात का इम्काँ भी नहीं
राम कृष्ण मुज़्तर
नफ़ी सारे हिसाबों की
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ये ज़रा सा कुछ और एक-दम बे-हिसाब सा कुछ
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ख़ाक ओ ख़ूँ की वुसअतों से बा-ख़बर करती हुई
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ऐ लम्हो मैं क्यूँ लम्हा-ए-लर्ज़ां हूँ बताओ
राजेन्द्र मनचंदा बानी
जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है
इरफ़ान सत्तार
सख़्त वीराँ है जहाँ तेरे बाद
इरफ़ान अहमद
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