जब भी तिरी क़ुर्बत के कुछ इम्काँ नज़र आए
हम ख़ुश हुए इतने की परेशाँ नज़र आए
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उदास उदास सर-ए-साग़र-ओ-सुबू भी मैं
ज़िंदा रहने के थे जितने उस्लूब
इस एहतिमाम से परवाने पेशतर न जले
अज़मत-ए-फ़िक्र के अंदाज़ अयाँ भी होंगे
किस मुँह से ज़िंदगी को वो रख़्शंदा कह सकें
शिकस्त-ए-आबला-ए-दिल में नग़्मगी है बहुत
हर शख़्स को ऐसे देखता हूँ
यूँ तो हर एक शख़्स ही तालिब समर का है
नज़र नज़र से वो कलियाँ खिला खिला भी गया
वो जिस का रंग सलोना है बादलों की तरह
यही नहीं कि फ़क़त तिरी जुस्तुजू भी मैं