तुम्हारा नाम किसी अजनबी के लब पर था
ज़रा सी बात थी दिल को मगर लगी है बहुत
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इस एहतिमाम से परवाने पेशतर न जले
जब भी तिरी क़ुर्बत के कुछ इम्काँ नज़र आए
रश्क-ए-महताब जहाँ-ताब था हर क़र्या-ए-जाँ
शिकस्त-ए-आबला-ए-दिल में नग़्मगी है बहुत
जो लब पे न लाऊँ वही शे'रों में कहूँ मैं
किस मुँह से ज़िंदगी को वो रख़्शंदा कह सकें
ज़िंदा रहने के थे जितने उस्लूब
सुकूत-ए-मर्ग में क्यूँ राह-ए-नग़्मा-गर देखूँ
अपनी आँखों से तो दरिया भी सराब-आसा मिले
यूँ तो हर एक शख़्स ही तालिब समर का है