ज़िंदा रहने के थे जितने उस्लूब
ज़िंदगी कट गई तब याद आए
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शिकस्त-ए-आबला-ए-दिल में नग़्मगी है बहुत
यूँ तो हर एक शख़्स ही तालिब समर का है
इस एहतिमाम से परवाने पेशतर न जले
रश्क-ए-महताब जहाँ-ताब था हर क़र्या-ए-जाँ
'बेदिल' का तख़य्युल हूँ न ग़ालिब की नवा हूँ
वो जिस का रंग सलोना है बादलों की तरह
जब भी तिरी क़ुर्बत के कुछ इम्काँ नज़र आए
यही नहीं कि फ़क़त तिरी जुस्तुजू भी मैं
अपनी आँखों से तो दरिया भी सराब-आसा मिले
तुम्हारा नाम किसी अजनबी के लब पर था
अज़मत-ए-फ़िक्र के अंदाज़ अयाँ भी होंगे