जान Poetry (page 61)

जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र

अहमद फ़राज़

जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो

अहमद फ़राज़

तसलसुल

अहमद फ़राज़

नामा-ए-जानाँ

अहमद फ़राज़

कनीज़

अहमद फ़राज़

यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ

अहमद फ़राज़

वो दुश्मन-ए-जाँ जान से प्यारा भी कभी था

अहमद फ़राज़

उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ

अहमद फ़राज़

उस का अपना ही करिश्मा है फ़ुसूँ है यूँ है

अहमद फ़राज़

तुझे है मश्क़-ए-सितम का मलाल वैसे ही

अहमद फ़राज़

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते

अहमद फ़राज़

शगुफ़्त-ए-गुल की सदा में रंग-ए-चमन में आओ

अहमद फ़राज़

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे

अहमद फ़राज़

मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला

अहमद फ़राज़

जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे

अहमद फ़राज़

जो क़ुर्बतों के नशे थे वो अब उतरने लगे

अहमद फ़राज़

जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो

अहमद फ़राज़

जब हर इक शहर बलाओं का ठिकाना बन जाए

अहमद फ़राज़

हम भी शाएर थे कभी जान-ए-सुख़न याद नहीं

अहमद फ़राज़

हर कोई तुर्रा-ए-पेचाक पहन कर निकला

अहमद फ़राज़

हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे

अहमद फ़राज़

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

अहमद फ़राज़

किसे ख़बर कि है क्या क्या ये जान थामे हुए

अहमद अज़ीम

वही दरिंदा

अहमद आज़ाद

इस के घर से मेरे घर तक एक कहानी बीच में है

अहमद अली बर्क़ी आज़मी

एहसास का वसीला-ए-इज़हार है ग़ज़ल

अहमद अली बर्क़ी आज़मी

ये कैसे बाल खोले आए क्यूँ सूरत बनी ग़म की

आग़ा शायर

चलेगा नहीं मुझ पे फ़ुक़रा तुम्हारा

आग़ा शायर

रोने से जो भड़ास थी दिल की निकल गई

आग़ा शाएर क़ज़लबाश

मैं ख़ुदी में मुब्तिला ख़ुद को मिटाने के लिए

आग़ा शाएर क़ज़लबाश

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