जंगल Poetry (page 2)

करेंगे सब ये दा'वा नक़्द-ए-दिल जो हार बैठे हैं

ज़रीफ़ लखनवी

फ़िल्मी इश्क़

ज़रीफ़ जबलपूरी

इश्क़ में तेरे जंगल भी घर लगते हैं

ज़किया ग़ज़ल

ज़ोर से थोड़ी उसे पुकारा करना है

ज़हरा क़रार

ये ख़्वाबों के साए

ज़ाहिदा ज़ैदी

किसी मंज़र के पस-मंज़र में जा कर

ज़ाहिद शम्सी

काएनाती गर्द में बरसात की एक शाम

ज़ाहिद इमरोज़

तीरा-ओ-तार ज़मीनों के उजाले दरिया

ज़ाहिद फ़ारानी

गाड़ी की खिड़की से देखा शब को उस का शहर

ज़ाहिद फ़ारानी

नज़्म

ज़ाहिद डार

फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे

ज़हीर काश्मीरी

आइने में ख़ुद अपना चेहरा है

ज़हीर ग़ाज़ीपुरी

जमाल पा के तब-ओ-ताब-ए-ग़म यगाना हुआ है

ज़हीर फ़तेहपूरी

सूखी ज़मीं को याद के बादल भिगो गए

ज़हीर अहमद ज़हीर

सो रहे थे शहर भी जंगल भी जब

ज़फ़र ताबिश

बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं

ज़फ़र ताबिश

गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर

ज़फ़र ताबिश

बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं

ज़फ़र ताबिश

ये क्या तहरीर पागल लिख रहा है

ज़फ़र सहबाई

ज़िंदगी को कर गया जंगल कोई

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

ये नहीं कहता कि दोबारा वही आवाज़ दे

ज़फ़र इक़बाल

परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव

ज़फ़र इक़बाल

खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे

ज़फ़र इक़बाल

हम ने आवाज़ न दी बर्ग ओ नवा होते हुए

ज़फ़र इक़बाल

गिरने की तरह का न सँभलने की तरह का

ज़फ़र इक़बाल

दरिया दूर नहीं और प्यासा रह सकता हूँ

ज़फ़र इक़बाल

टूटे तख़्ते पर समुंदर पार करने आए थे

ज़फ़र गौरी

शो'ले से चटकते हैं हर साँस में ख़ुशबू के

ज़फ़र गौरी

चल पड़े हम दश्त-ए-बे-साया भी जंगल हो गया

ज़फ़र गौरी

हाल कुछ अब के जुदा है तिरे दीवानों का

यूसुफ़ तक़ी

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