जंगल Poetry (page 4)

ज़ख़्म कब का था दर्द उठा है अब

ताजदार आदिल

बंद दरीचों के कमरे से पूर्वा यूँ टकराई है

ताज सईद

ये जो कुछ आज है कल तो नहीं है

ताज भोपाली

पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे

तहज़ीब हाफ़ी

ये एक बात समझने में रात हो गई है

तहज़ीब हाफ़ी

जब उस की तस्वीर बनाया करता था

तहज़ीब हाफ़ी

चेहरा देखें तेरे होंट और पलकें देखें

तहज़ीब हाफ़ी

कोई हसीं मंज़र आँखों से जब ओझल हो जाएगा

ताहिर फ़राज़

ज़वाल की आख़िरी चीख़

तबस्सुम काश्मीरी

ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़

ताबाँ अब्दुल हई

हुए हैं जा के आशिक़ अब तो हम उस शोख़ चंचल के

ताबाँ अब्दुल हई

मुशाएरा

सय्यद मोहम्मद जाफ़री

धीरे धीरे ढलते सूरज का सफ़र मेरा भी है

स्वप्निल तिवारी

वापस घर जा ख़त्म हुआ

सालेह नदीम

खिड़की दरवाज़ा खोलो

सालेह नदीम

हर क़दम साँपों की आहट और मैं

सालेह नदीम

कोई शय है जो सनसनाती है

सुनील आफ़ताब

कोई शय है जो सनसनाती है

सुनील आफ़ताब

मुसीबत में भी ग़ैरत-आश्ना ख़ामोश रहती है

सुल्तान अख़्तर

तुझ से बिछड़ूँ तो ये ख़दशा है अकेला हो जाऊँ

सुलेमान ख़ुमार

जब तू मुझ से रूठ गया था

सुलेमान ख़ुमार

ख़िज़ाँ की आज़माइश हो गया हूँ

सुहैल अख़्तर

पेड़ ऊँचा है मगर ज़ेर-ए-ज़मीं कितना है

सुहैल अहमद ज़ैदी

धुँद

सुबोध लाल साक़ी

अपनी गुमशुदगी की अफ़्वाहें मैं फैलाता रहा

सुबोध लाल साक़ी

सुने रातों कूँ गर जंगल में मेरे ग़म की वावैला

सिराज औरंगाबादी

सर्व-ए-गुलशन पर सुख़न उस क़द का बाला हो गया

सिराज औरंगाबादी

दिल में ख़यालात-ए-रंगीं गुज़रते हैं जिऊँ बॉस फूलों के रंगों में रहिए

सिराज औरंगाबादी

मुर्दा लोगों की तस्वीरी नुमाइश

सिदरा सहर इमरान

न कोई नक़्श न पैकर सराब चारों तरफ़

सिद्दीक़ मुजीबी

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