ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
कि ये आहू हैं शहरी और वे वहशी हैं जंगल के
Javed Akhtar
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Allama Iqbal
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दिल की हसरत न रही दिल में मिरे कुछ बाक़ी
बुरा न मानियो मैं पूछता हूँ ऐ ज़ालिम
ख़ूब-रू जो एक का महबूब नहीं
न मिरे पास इज़्ज़त-ए-रमज़ाँ
गर्म अज़-बस-कि है बाज़ार-ए-बुताँ ऐ ज़ाहिद
शब को फिरे वो रश्क-ए-माह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू
आता नहीं वो यार-ए-सितमगर तो क्या हुआ
नेमत-ए-अल्वान भी ख़्वान-ए-फ़लक की देख ली
साक़ी हो और चमन हो मीना हो और हम हों
सुने क्यूँ-कर वो लब्बैक-ए-हरम को
तुम इस क़दर जो निडर हो के ज़ुल्म करते हो
सुन फ़स्ल-ए-गुल ख़ुशी हो गुलशन में आइयाँ हैं