बुरा न मानियो मैं पूछता हूँ ऐ ज़ालिम
कि बे-कसों के सताए से कुछ भला भी है
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तू भली बात से ही मेरी ख़फ़ा होता है
हिज्र में उस बुत-ए-काफ़िर के तड़पते हैं पड़े
ख़ूब-रू जो एक का महबूब नहीं
याँ तलक के है तिरे हिज्र में फ़रियाद कि बस
कर क़त्ल मुझे उन ने आलम में बहुत ढूँडा
मलूँ हों ख़ाक जूँ आईना मुँह पर
एक बुलबुल भी चमन में न रही अब की फ़सल
न थे आशिक़ किसी बे-दाद पर हम जब तलक 'ताबाँ'
दाग़-ए-दिल अपना जब दिखाता हूँ
हुए हैं जा के आशिक़ अब तो हम उस शोख़ चंचल के
ईमान ओ दीं से 'ताबाँ' कुछ काम नहीं है हम को