एक बुलबुल भी चमन में न रही अब की फ़सल
ज़ुल्म ऐसा ही किया तू ने ऐ सय्याद कि बस
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सफ़र दुनिया से करना क्या है 'ताबाँ'
दर्द-ए-सर है ख़ुमार से मुझ को
दिल की हसरत न रही दिल में मिरे कुछ बाक़ी
नमकीं हर्फ़ है मिरा ये फ़सीह
नहीं कोई दोस्त अपना यार अपना मेहरबाँ अपना
हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत
ख़ुदा देवे अगर क़ुदरत मुझे तो ज़िद है ज़ाहिद की
कब पिलावेगा तू ऐ साक़ी मुझे जाम-ए-शराब
ख़ूबाँ जो पहनते हैं निपट तंग चोलियाँ
आता नहीं वो यार-ए-सितमगर तो क्या हुआ
किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
ख़ूब-रू जो एक का महबूब नहीं