दिल की हसरत न रही दिल में मिरे कुछ बाक़ी
एक ही तेग़ लगा ऐसी ऐ जल्लाद कि बस
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करता है गर तू बुत-शिकनी तो समझ के कर
किसी का काम दिल इस चर्ख़ से हुआ भी है
नहीं तुम मानते मेरा कहा जी
फिर मेहरबाँ हुआ है 'ताबाँ' मिरा सितमगर
सोहबत-ए-शैख़ में तू रात को जाया मत कर
हवा भी इश्क़ की लगने न देता मैं उसे हरगिज़
अगर तू शोहरा-ए-आफ़ाक़ है तो तेरे बंदों में
तू मिल उस से हो जिस से दिल तिरा ख़ुश
मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया
अज़ीज़ाँ सितमगर न आया मिरे घर
यहाँ यार और बरदार कोई नहीं किसी का
रोया न हूँ जहाँ में गरेबाँ को अपने फाड़