दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं 'ताबाँ'
कोई मुझ सा बता दे तू ख़रीदार बुताँ का
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करता है गर तू बुत-शिकनी तो समझ के कर
किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
किस किस तरह की दिल में गुज़रती हैं हसरतें
तक रहा है ये कोई सोने की चिड़िया आ फँसे
ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
किस से पूछूँ हाए मैं इस दिल के समझाने की तरह
मुझ से बीमार है मिरा ज़ालिम
हवा भी इश्क़ की लगने न देता मैं उसे हरगिज़
यार रूठा है मिरा उस को मनाऊँ किस तरह
एक बुलबुल भी चमन में न रही अब की फ़सल
हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत
हरम को छोड़ रहूँ क्यूँ न बुत-कदे में शैख़