करता है गर तू बुत-शिकनी तो समझ के कर
शायद कि उन के पर्दे में ज़ाहिद ख़ुदा भी हो
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यार रूठा है मिरा उस को मनाऊँ किस तरह
मुझ से बीमार है मिरा ज़ालिम
अगर तू शोहरा-ए-आफ़ाक़ है तो तेरे बंदों में
दाग़-ए-दिल अपना जब दिखाता हूँ
नहीं कोई दोस्त अपना यार अपना मेहरबाँ अपना
हमारे मय-कदे में हैं जो कुछ की निय्यतें ज़ाहिर
कब पिलावेगा तू ऐ साक़ी मुझे जाम-ए-शराब
सुन फ़स्ल-ए-गुल ख़ुशी हो गुलशन में आइयाँ हैं
ख़ूबाँ जो पहनते हैं निपट तंग चोलियाँ
आरज़ू है मैं रखूँ तेरे क़दम पर गर जबीं
हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत