ख़ुदा देवे अगर क़ुदरत मुझे तो ज़िद है ज़ाहिद की
जहाँ तक मस्जिदें हैं मैं बनाऊँ तोड़ बुत-ख़ाना
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हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत
तिरी बात लावे जो पैग़ाम-बर
मुझे ऐश ओ इशरत की क़ुदरत नहीं है
मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया
हुए हैं जा के आशिक़ अब तो हम उस शोख़ चंचल के
दुनिया कि नेक ओ बद से मुझे कुछ ख़बर नहीं
मिरा ख़ुर्शीद-रू सब माह-रूयाँ बीच यक्का है
नमकीं हर्फ़ है मिरा ये फ़सीह
किस से पूछूँ हाए मैं इस दिल के समझाने की तरह
अगर तू शोहरा-ए-आफ़ाक़ है तो तेरे बंदों में
यार से अब के गर मिलूँ 'ताबाँ'
महफ़िल के बीच सुन के मिरे सोज़-ए-दिल का हाल