तिरी बात लावे जो पैग़ाम-बर
वही है मिरे हक़ में रूह-उल-अमीं
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मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया
सुने क्यूँ-कर वो लब्बैक-ए-हरम को
तू भली बात से ही मेरी ख़फ़ा होता है
किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
नहीं तुम मानते मेरा कहा जी
ग़ैर के हाथ में उस शोख़ का दामान है आज
हमारे मय-कदे में हैं जो कुछ की निय्यतें ज़ाहिर
एक बुलबुल भी चमन में न रही अब की फ़सल
ज़ाहिद हो और तक़्वा आबिद हो और मुसल्ला
किसी का काम दिल इस चर्ख़ से हुआ भी है
देख क़ासिद को मिरे यार ने पूछा 'ताबाँ'
आता नहीं वो यार-ए-सितमगर तो क्या हुआ