सुने क्यूँ-कर वो लब्बैक-ए-हरम को
जिसे नाक़ूस की आए सदा ख़ुश
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दिल की हसरत न रही दिल में मिरे कुछ बाक़ी
तू मिल उस से हो जिस से दिल तिरा ख़ुश
ख़ूबाँ जो पहनते हैं निपट तंग चोलियाँ
करता है गर तू बुत-शिकनी तो समझ के कर
लड़का जो ख़ूब-रू है सो मुझ से बचा नहीं
देख क़ासिद को मिरे यार ने पूछा 'ताबाँ'
मुझे ऐश ओ इशरत की क़ुदरत नहीं है
ग़ैर के हाथ में उस शोख़ का दामान है आज
खोता ही नहीं है हवस-ए-मतअम-ओ-मलबस
हरम को छोड़ रहूँ क्यूँ न बुत-कदे में शैख़
सोहबत-ए-शैख़ में तू रात को जाया मत कर