देख क़ासिद को मिरे यार ने पूछा 'ताबाँ'
क्या मिरे हिज्र में जीता है वो ग़मनाक हनूज़
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क़िस्मत में क्या है देखें जीते बचें कि मर जाएँ
'ताबाँ' ज़ि-बस हवा-ए-जुनूँ सर में है मिरे
कब पिलावेगा तू ऐ साक़ी मुझे जाम-ए-शराब
किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
नेमत-ए-अल्वान भी ख़्वान-ए-फ़लक की देख ली
याँ तलक के है तिरे हिज्र में फ़रियाद कि बस
काबा है अगर शैख़ का मस्जूद-ए-ख़लाइक़
दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं 'ताबाँ'
हरम को छोड़ रहूँ क्यूँ न बुत-कदे में शैख़
तेरी आँखें बड़ी सी प्यारी हैं
इन ज़ालिमों को जौर सिवा काम ही नहीं
ग़म में रोता हूँ तिरे सुब्ह कहीं शाम कहीं