'ताबाँ' ज़ि-बस हवा-ए-जुनूँ सर में है मिरे
अब मैं हूँ और दश्त है ये सर है और पहाड़
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हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत
वो तो सुनता नहीं किसी की बात
आतिश-ए-इश्क़ में जो जल न मरें
तेरी आँखें बड़ी सी प्यारी हैं
करता है गर तू बुत-शिकनी तो समझ के कर
महफ़िल के बीच सुन के मिरे सोज़-ए-दिल का हाल
देख उस को ख़्वाब में जब आँख खुल जाती है सुब्ह
किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
देख क़ासिद को मिरे यार ने पूछा 'ताबाँ'
नहीं तुम मानते मेरा कहा जी
दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं 'ताबाँ'
दाग़-ए-दिल अपना जब दिखाता हूँ