आतिश-ए-इश्क़ में जो जल न मरें
इश्क़ के फ़न में वो अनारी हैं
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हिज्र में उस बुत-ए-काफ़िर के तड़पते हैं पड़े
दुनिया कि नेक ओ बद से मुझे कुछ ख़बर नहीं
फिर मेहरबाँ हुआ है 'ताबाँ' मिरा सितमगर
आइने को तिरी सूरत से न हो क्यूँ कर हैरत
गर्म अज़-बस-कि है बाज़ार-ए-बुताँ ऐ ज़ाहिद
ब'अद मुद्दत के माह-रू आया
आई बहार शोरिश-तिफ़लाँ को क्या हुआ
रोया न हूँ जहाँ में गरेबाँ को अपने फाड़
किस से पूछूँ हाए मैं इस दिल के समझाने की तरह
मिरा ख़ुर्शीद-रू सब माह-रूयाँ बीच यक्का है
सफ़र दुनिया से करना क्या है 'ताबाँ'
करता है गर तू बुत-शिकनी तो समझ के कर