हिज्र में उस बुत-ए-काफ़िर के तड़पते हैं पड़े
अहल-ए-ज़ुन्नार कहीं साहब-ए-इस्लाम कहीं
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किस से पूछूँ हाए मैं इस दिल के समझाने की तरह
गर्म अज़-बस-कि है बाज़ार-ए-बुताँ ऐ ज़ाहिद
ये जो हैं अहल-ए-रिया आज फ़क़ीरों के बीच
इन बुतों को तो मिरे साथ मोहब्बत होती
वे शख़्स जिन से फ़ख़्र जहाँ को था अब वे हाए
नहीं कोई दोस्त अपना यार अपना मेहरबाँ अपना
न मिरे पास इज़्ज़त-ए-रमज़ाँ
तेरी मख़मूर चश्म ऐ मय-नोश
मुझे आता है रोना ऐसी तन्हाई पे ऐ 'ताबाँ'
आइने को तिरी सूरत से न हो क्यूँ कर हैरत
हरम को छोड़ रहूँ क्यूँ न बुत-कदे में शैख़
दुनिया कि नेक ओ बद से मुझे कुछ ख़बर नहीं