इन बुतों को तो मिरे साथ मोहब्बत होती
काश बनता मैं बरहमन ही मुसलमाँ के एवज़
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तेरी मख़मूर चश्म ऐ मय-नोश
दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं 'ताबाँ'
मलूँ हों ख़ाक जूँ आईना मुँह पर
तू मिल उस से हो जिस से दिल तिरा ख़ुश
तू भली बात से ही मेरी ख़फ़ा होता है
यहाँ यार और बरदार कोई नहीं किसी का
जब तलक रहे जीता चाहिए हँसे बोले
दिल की हसरत न रही दिल में मिरे कुछ बाक़ी
मरने की मुझ को आप से हैं इज़तिराबियाँ
यार से अब के गर मिलूँ 'ताबाँ'
मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया