मलूँ हों ख़ाक जूँ आईना मुँह पर
तिरी सूरत मुझे आती है जब याद
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तेरी आँखें बड़ी सी प्यारी हैं
सोहबत-ए-शैख़ में तू रात को जाया मत कर
नेमत-ए-अल्वान भी ख़्वान-ए-फ़लक की देख ली
हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत
आईना रू-ब-रू रख और अपनी छब दिखाना
क़फ़स से छूटने की कब हवस है
है आरज़ू ये जी में उस की गली में जावें
दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं 'ताबाँ'
ख़ूब-रू जो एक का महबूब नहीं
तिरे मिज़्गाँ की फ़ौजें बाँध कर सफ़ जब हुईं ख़ड़ियाँ
सुन फ़स्ल-ए-गुल ख़ुशी हो गुलशन में आइयाँ हैं