ईमान ओ दीं से 'ताबाँ' कुछ काम नहीं है हम को
साक़ी हो और मय हो दुनिया हो और हम हों
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तिरी बात लावे जो पैग़ाम-बर
आइने को तिरी सूरत से न हो क्यूँ कर हैरत
ले मेरी ख़बर चश्म मिरे यार की क्यूँ-कर
जिस का गोरा रंग हो वो रात को खिलता है ख़ूब
रोया न हूँ जहाँ में गरेबाँ को अपने फाड़
वो तो सुनता नहीं किसी की बात
ब'अद मुद्दत के माह-रू आया
ख़ूब-रू जो एक का महबूब नहीं
ग़म में रोता हूँ तिरे सुब्ह कहीं शाम कहीं
काबा है अगर शैख़ का मस्जूद-ए-ख़लाइक़
मैं तो तालिब दिल से हूँगा दीन का
आईना रू-ब-रू रख और अपनी छब दिखाना