जिस का गोरा रंग हो वो रात को खिलता है ख़ूब
रौशनाई शम्अ की फीकी नज़र आती है सुब्ह
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आता नहीं वो यार-ए-सितमगर तो क्या हुआ
हुए हैं जा के आशिक़ अब तो हम उस शोख़ चंचल के
आरज़ू है मैं रखूँ तेरे क़दम पर गर जबीं
ग़म में रोता हूँ तिरे सुब्ह कहीं शाम कहीं
तुम से अब कामयाब और ही है
बुरा न मानियो मैं पूछता हूँ ऐ ज़ालिम
क़िस्मत में क्या है देखें जीते बचें कि मर जाएँ
दुनिया कि नेक ओ बद से मुझे कुछ ख़बर नहीं
देख क़ासिद को मिरे यार ने पूछा 'ताबाँ'
खोता ही नहीं है हवस-ए-मतअम-ओ-मलबस
फिर मेहरबाँ हुआ है 'ताबाँ' मिरा सितमगर
ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़