क़िस्मत में क्या है देखें जीते बचें कि मर जाएँ
क़ातिल से अब तो हम ने आँखें लड़ाइयाँ हैं
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है आरज़ू ये जी में उस की गली में जावें
किसी का काम दिल इस चर्ख़ से हुआ भी है
तुम्हारे हिज्र में रहता है हम को ग़म मियाँ-साहिब
दर्द-ए-सर है ख़ुमार से मुझ को
मुझे आता है रोना ऐसी तन्हाई पे ऐ 'ताबाँ'
दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं 'ताबाँ'
यार रूठा है मिरा उस को मनाऊँ किस तरह
नेमत-ए-अल्वान भी ख़्वान-ए-फ़लक की देख ली
किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत
न जा वाइज़ की बातों पर हमेशा मय को पी 'ताबाँ'
बुरा न मानियो मैं पूछता हूँ ऐ ज़ालिम