दुनिया कि नेक ओ बद से मुझे कुछ ख़बर नहीं
इतना नहीं जहाँ मैं कोई बे-ख़बर कि हम
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ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का
तू भली बात से ही मेरी ख़फ़ा होता है
यार रूठा है मिरा उस को मनाऊँ किस तरह
किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
हवा भी इश्क़ की लगने न देता मैं उसे हरगिज़
नमकीं हर्फ़ है मिरा ये फ़सीह
वे शख़्स जिन से फ़ख़्र जहाँ को था अब वे हाए
मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया
देख उस को ख़्वाब में जब आँख खुल जाती है सुब्ह
तू कौन है ऐ वाइज़ जो मुझ को डराता है
वो तो सुनता नहीं किसी की बात