ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का
मज़हब में मिरे कुफ़्र है इंकार बुताँ का
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मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया
कई फ़ाक़ों में ईद आई है
है आरज़ू ये जी में उस की गली में जावें
हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत
करता है गर तू बुत-शिकनी तो समझ के कर
अज़ीज़ाँ सितमगर न आया मिरे घर
गर्म अज़-बस-कि है बाज़ार-ए-बुताँ ऐ ज़ाहिद
दिल की हसरत न रही दिल में मिरे कुछ बाक़ी
महफ़िल के बीच सुन के मिरे सोज़-ए-दिल का हाल
तिरे मिज़्गाँ की फ़ौजें बाँध कर सफ़ जब हुईं ख़ड़ियाँ
रोया न हूँ जहाँ में गरेबाँ को अपने फाड़
मोहब्बत तू मत कर दिल उस बेवफ़ा से