गर्म अज़-बस-कि है बाज़ार-ए-बुताँ ऐ ज़ाहिद
रश्क से टुकड़े हुआ है हज्र-ए-अस्वद भी
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महफ़िल के बीच सुन के मिरे सोज़-ए-दिल का हाल
रिंद वाइज़ से क्यूँ कि सरबर हो
ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
लड़का जो ख़ूब-रू है सो मुझ से बचा नहीं
न मिरे पास इज़्ज़त-ए-रमज़ाँ
कर क़त्ल मुझे उन ने आलम में बहुत ढूँडा
फिर मेहरबाँ हुआ है 'ताबाँ' मिरा सितमगर
मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया
दिल की हसरत न रही दिल में मिरे कुछ बाक़ी
हिज्र में उस बुत-ए-काफ़िर के तड़पते हैं पड़े
अगर तू शोहरा-ए-आफ़ाक़ है तो तेरे बंदों में