कर क़त्ल मुझे उन ने आलम में बहुत ढूँडा
जब मुझ सा न कुइ पाया जल्लाद बहुत रोया
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वो तो सुनता नहीं किसी की बात
तू भली बात से ही मेरी ख़फ़ा होता है
सुने क्यूँ-कर वो लब्बैक-ए-हरम को
ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
याँ तलक के है तिरे हिज्र में फ़रियाद कि बस
है आरज़ू ये जी में उस की गली में जावें
ख़्वान-ए-फ़लक पे नेमत-ए-अलवान है कहाँ
मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया
तू मिल उस से हो जिस से दिल तिरा ख़ुश
ख़ूबाँ जो पहनते हैं निपट तंग चोलियाँ
नेमत-ए-अल्वान भी ख़्वान-ए-फ़लक की देख ली
इन बुतों को तो मिरे साथ मोहब्बत होती