ये जो हैं अहल-ए-रिया आज फ़क़ीरों के बीच
कल गिनेंगे हुमक़ा उन ही को पीरों के बीच
Faiz Ahmad Faiz
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ऐश सब ख़ुश आते हैं जब तलक जवानी है
हुए हैं जा के आशिक़ अब तो हम उस शोख़ चंचल के
हिज्र में उस बुत-ए-काफ़िर के तड़पते हैं पड़े
यार रूठा है मिरा उस को मनाऊँ किस तरह
रिंद वाइज़ से क्यूँ कि सरबर हो
वे शख़्स जिन से फ़ख़्र जहाँ को था अब वे हाए
तेरी मख़मूर चश्म ऐ मय-नोश
मलूँ हों ख़ाक जूँ आईना मुँह पर
कई बारी बिना हो जिस की फिर कहते हैं टूटेगा
महफ़िल के बीच सुन के मिरे सोज़-ए-दिल का हाल
तेरी आँखें बड़ी सी प्यारी हैं
नहीं तुम मानते मेरा कहा जी