कई बारी बिना हो जिस की फिर कहते हैं टूटेगा
ये हुर्मत जिस की हो ऐ शैख़ क्या तेरा वो मक्का है
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ख़्वान-ए-फ़लक पे नेमत-ए-अलवान है कहाँ
न जा वाइज़ की बातों पर हमेशा मय को पी 'ताबाँ'
यहाँ यार और बरदार कोई नहीं किसी का
साक़ी हो और चमन हो मीना हो और हम हों
सुने क्यूँ-कर वो लब्बैक-ए-हरम को
दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं 'ताबाँ'
मिरा ख़ुर्शीद-रू सब माह-रूयाँ बीच यक्का है
शब को फिरे वो रश्क-ए-माह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू
जब तलक रहे जीता चाहिए हँसे बोले
आतिश-ए-इश्क़ में जो जल न मरें
जिस का गोरा रंग हो वो रात को खिलता है ख़ूब
आता नहीं वो यार-ए-सितमगर तो क्या हुआ