हरम को छोड़ रहूँ क्यूँ न बुत-कदे में शैख़
कि याँ हर एक को है मर्तबा ख़ुदाई का
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Habib Jalib
Anwar Masood
Javed Akhtar
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Allama Iqbal
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(412) Peoples Rate This
किस से पूछूँ हाए मैं इस दिल के समझाने की तरह
सुने क्यूँ-कर वो लब्बैक-ए-हरम को
है क्या सबब कि यार न आया ख़बर के तईं
वो तो सुनता नहीं किसी की बात
महफ़िल के बीच सुन के मिरे सोज़-ए-दिल का हाल
फिर मेहरबाँ हुआ है 'ताबाँ' मिरा सितमगर
ग़म में रोता हूँ तिरे सुब्ह कहीं शाम कहीं
तू मिल उस से हो जिस से दिल तिरा ख़ुश
सुन फ़स्ल-ए-गुल ख़ुशी हो गुलशन में आइयाँ हैं
ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का
तिरी बात लावे जो पैग़ाम-बर
ख़ुदा देवे अगर क़ुदरत मुझे तो ज़िद है ज़ाहिद की