पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे
मैं जंगल में पानी लाया करता था
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बता ऐ अब्र मुसावात क्यूँ नहीं करता
सहरा से हो के बाग़ में आया हूँ सैर को
वो जिस की छाँव में पच्चीस साल गुज़रे हैं
न नींद और न ख़्वाबों से आँख भरनी है
ये एक बात समझने में रात हो गई है
सहरा से आने वाली हवाओं में रेत है
इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
कुछ ज़रूरत से कम किया गया है
इस लिए रौशनी में ठंडक है
मैं जिस के साथ कई दिन गुज़ार आया हूँ