मैं सुख़न में हूँ उस जगह कि जहाँ
साँस लेना भी शाइरी है मुझे
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सहरा से आने वाली हवाओं में रेत है
पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
तेरा चुप रहना मिरे ज़ेहन में क्या बैठ गया
इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
कुछ ज़रूरत से कम किया गया है
पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे
इस लिए रौशनी में ठंडक है
इक हवेली हूँ उस का दर भी हूँ
किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है
मैं जंगलों की तरफ़ चल पड़ा हूँ छोड़ के घर