मैं जंगलों की तरफ़ चल पड़ा हूँ छोड़ के घर
ये क्या कि घर की उदासी भी साथ हो गई है
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पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
अजीब ख़्वाब था उस के बदन में काई थी
तमाम नाख़ुदा साहिल से दूर हो जाएँ
आसमाँ और ज़मीं की वुसअत देख
तेरा चुप रहना मिरे ज़ेहन में क्या बैठ गया
इक हवेली हूँ उस का दर भी हूँ
सहरा से हो के बाग़ में आया हूँ सैर को
इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है
दास्ताँ हूँ मैं इक तवील मगर
मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
ये एक बात समझने में रात हो गई है