जंगल Poetry (page 17)

जंग से जंगल बना जंगल से मैं निकला नहीं

अफ़ज़ाल नवेद

मुझे बतलाईए अब कौन सी जीने की सूरत है

अफ़ज़ल मिनहास

जब इक सराब में प्यासों को प्यास उतारती है

अफ़ज़ल ख़ान

जंगल के पास एक औरत

अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

इक फ़ना के घाट उतरा एक पागल हो गया

आफ़ताब इक़बाल शमीम

जगा जुनूँ को ज़रा नक़्शा-ए-मुक़द्दर खींच

अफ़रोज़ आलम

जगा जुनूँ को ज़रा नक़्शा-ए-मुक़द्दर खींच

अफ़रोज़ आलम

वक़्त की पीठ पर

आदिल मंसूरी

सितारा सो गया है

आदिल मंसूरी

गोश्त की सड़कों पर

आदिल मंसूरी

सड़कों पर सूरज उतरा

आदिल मंसूरी

कौन था वो ख़्वाब के मल्बूस में लिपटा हुआ

आदिल मंसूरी

तमाम उम्र की तन्हाई की सज़ा दे कर

अदीम हाशमी

शोर सा एक हर इक सम्त बपा लगता है

अदीम हाशमी

क्यूँ मिरे लब पे वफ़ाओं का सवाल आ जाए

अदीम हाशमी

वो लम्हा जो मेरा था

अदा जाफ़री

दिवाने दिल कूँ मेरे शहर सें हरगिज़ नहीं बनती

आबरू शाह मुबारक

ये सब्ज़ा और ये आब-ए-रवाँ और अब्र ये गहरा

आबरू शाह मुबारक

साँप सर मार अगर जो जावे मर

आबरू शाह मुबारक

ख़ुर्शीद-रू के आगे हो नूर का सवाली

आबरू शाह मुबारक

बिफरी लहरें रात अँधेरी और बला की आँधी है

अबरार हामिद

चेहरों के मैले जिस्मों के जंगल थे हर जगह

अबरार आज़मी

तन्हा उदास शब के सिवा कोई भी न था

अबरार आज़मी

तिरी दुनिया के नक़्शे में

अबरार अहमद

पूछता फिरता हूँ मैं अपना पता जंगल से

आबिद मलिक

मैं ने लोगों को न लोगों ने मुझे देखा था

आबिद मलिक

जो शख़्स तुझ को फ़रिश्ता दिखाई देता है

आबिद आलमी

जब से अल्फ़ाज़ के जंगल में घिरा है कोई

आबिद आलमी

जब भी कमरे में कुछ हवा आई

आबिद आलमी

सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का

अभिषेक शुक्ला

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