चेहरों के मैले जिस्मों के जंगल थे हर जगह
उन में कहीं भी कोई मगर आदमी न था
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तमाम रात वो पहलू को गर्म करता रहा
नज़्म
परिंदे फ़ज़ाओं में फिर खो गए
उस ने कल भागते लम्हों को पकड़ रक्खा था
मुझे भी फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल न थी
कमरे में धुआँ दर्द की पहचान बना था
एक वाक़िआ
ज़मीं पे आग फ़लक पर धुआँ दिखाई दिया
धूप चमकी रात की तस्वीर पीली हो गई
किस का है जुर्म किस की ख़ता सोचना पड़ा
गुम-शुदा
ख़याल लम्स का कार-ए-सवाब जैसा था